Friday 6 May 2016

Bas Yuhin


बस युहीं 


कुछ ऐसे बात  की उसने , कि खुद को ही भुला बैठा 
उस आवाज़ कि गहराई मे , शब्दों को सच मान बैठा 
शाम की ओस की बूँदों कि तरह , हवाएं उड़ा ले गई उस खुशबू को 
टूटा हुआ बिखरा सा था मै , उस सहारे को साथ समझ बैठा  । 
ऊँचे घरों को तांकते हुए , हाथों  लकीरों को नापते हुए 
धुंदली सी दिखती है , सपनों की वो मंज़िले 
हार की चादर ओढ़े , मर्ज़ी को किस्मत समझ बैठा । 

कोई पूछे क्या है अंत , तो बढ़ने का प्रमाण दिए सशक्त हो बैठा 
पीछे मुड़ के देखा तो , अपनों को ही दूर कर बैठा 
हवा ने रुख यूँ बदला , कि आँखों से सपनें ही ले उड़ा 
खाली पथ के नुकीले कंकड़ , उन्हें मंज़र कि सीढ़ी समझ बैठा 
हर मोड़ पर मुड़ जाती हैं , वादा कर धोखा दे जाती हैं 
ख्वाइशों के झूलों को , ज़िन्दगी की हक़ीक़त समझ बैठा  ।