बस युहीं
कुछ ऐसे बात की उसने , कि खुद को ही भुला बैठा
उस आवाज़ कि गहराई मे , शब्दों को सच मान बैठा
शाम की ओस की बूँदों कि तरह , हवाएं उड़ा ले गई उस खुशबू को
टूटा हुआ बिखरा सा था मै , उस सहारे को साथ समझ बैठा ।
ऊँचे घरों को तांकते हुए , हाथों लकीरों को नापते हुए
धुंदली सी दिखती है , सपनों की वो मंज़िले
हार की चादर ओढ़े , मर्ज़ी को किस्मत समझ बैठा ।
कोई पूछे क्या है अंत , तो बढ़ने का प्रमाण दिए सशक्त हो बैठा
पीछे मुड़ के देखा तो , अपनों को ही दूर कर बैठा
हवा ने रुख यूँ बदला , कि आँखों से सपनें ही ले उड़ा
खाली पथ के नुकीले कंकड़ , उन्हें मंज़र कि सीढ़ी समझ बैठा
हर मोड़ पर मुड़ जाती हैं , वादा कर धोखा दे जाती हैं
ख्वाइशों के झूलों को , ज़िन्दगी की हक़ीक़त समझ बैठा ।